इस्लामी दर्शन : अरब दर्शन, जिसे ज्यादा सही तौर पर मुस्लिम दर्शन कहा जाता है, मुख्यत: ग्रीक दर्शन के प्रभावक्षेत्र में तेजी के साथ विकसित होता हुआ चार मुख्य आयामों में प्रकट होता है :

  • मुतज़्लवाद (बुद्धिवाद),
  • अश'अरवाद (पांडित्य वाद),
  • सूफीवाद (रहस्यवाद) तथा
  • दर्शन

इन विभिन्न विचार संप्रदायों का संक्षिप्त विवरण नीचे प्रस्तुत है :

मुतज़्लवाद

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यह विचार संप्रदाय हिजरी संवत्‌ की प्रथम शताब्दी का अंत होते होते स्थापित हुआ। यह दो महान्‌ सिद्धांतों -ईश्वरीय एकत्व तथा ईश्वरीय न्याय - पर आधृत था। ईश्वरीय एकत्व से यह अभिप्राय था कि ईश्वर एक है -उसमें द्वैतता की गंध तक नहीं मिल सकती। उसमें अपने 'मूलसत्व' से परे कोई अन्य गुण नहीं है। उसका अपना सत्व ही सभी गुणों की लक्ष्यपूर्ति करता है। वह सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान्‌ है, किंतु इसका कारण यह नहीं है कि उसमें अपनी सत्ता या सत्व से पृथक्‌ सर्वज्ञता या सर्वशक्तिमता के कोई गुण हैं, बल्कि इसका कारण यह है कि उसका मूलसत्व ही इन गुणों के नाम से जानी जानेवाली विशेषताओं को अपने में निहित करता है। इस मत का प्रतिपादन इस संप्रदाय के प्रवर्तक वासिल बिन' अता (मृत्यु 748 ई0) ने किया तथा अब्दुल हुधैल (अबुल हुजैल) अल्लाफ़्‌ ने (मृत्यु 840 ई0) इसकी सुस्पष्ट व्याख्या की (दे0 अरबी दर्शन)।

ईश्वरीय न्याय का अभिप्राय यह है कि ईश्वर सदैव न्यायी है और वह कभी निर्दय नहीं होता। इसी विश्वास की एक उपशाखा की यह मान्यता है कि ईश्वर ने मनुष्य को एक सीमा तक इच्छास्वातंत््रय एवं कार्य की स्वतंत्रता से विभूषित किया। मनुष्य अपने सभी कर्मों के लिए उत्तरदायी है, अपने सत्कर्मों के लिए वह पुरस्कार तथा दुष्कर्मों के लिए दंड पाता है।

मु'तज़्ली लोग अपने को 'अह्ल अत्‌ तवहीद् वल्‌ अद्ल' (ईश्वरीय एकत्व एवं न्याय के अनुयायी) कहते थे क्योंकि वे ईश्वर के न्याय एवं एकत्व के दृढ़ समर्थक थे। मु'तज़्लियों के अन्य प्रमुख मत थे, कुरान की शाश्वतता से इन्कार तथा परलोक में ईश्वर दर्शन की असंभाव्यता। पुरातनपंथी यह मानते थे कि विवेक ईश्वर का गुण है। और वह कुरान में अभिव्यक्त है। यों कुरान स्वयंभू है और वह ईश्वर की शाश्वतता से संबद्ध है। मु'तज़्ली कहते हैं कि यदि यह ज्ञान ईश्वर की शाश्वतता से संबद्ध है तो इसका अर्थ दो शाश्वत सत्यों का अस्तित्व हुआ। दूसरे शब्दों में कहें तो इससे दो ईश्वरों की सत्ता मान्य हो जाती है।

पुरातनपंथी यह मानते थे कि कम से कम कुछ लोगों को स्वर्ग में ईश्वर का दर्शन होना संभव है और यह परम आनंद का विषय होगा। मु'तज़लियों का कहना था कि स्वर्ग में भी ईश्वर नहीं दिखाई दे सकता क्योंकि ऐसा होना इस बात की पूर्वकल्पना करना है कि इस विस्तार में वह भी कुछ जगह घेरता है। लेकिन ईश्वर विस्तारमय है ही नहीं, अत: उसे कभी कहीं भी नहीं देखा जा सकता।

मु'तज़लियों ने इस्लाम के रूढ़ नियमों का उदात्तीकरण अच्छी भावना से प्रेरित होकर शुरू किया था किंतु कुरान की दैवी उत्पत्ति के संबंध में उनमें से बहुतों की आस्था अनजाने में हिल उठी। परिणामत: अपनी ही तर्कपद्धति को लेकर वे मजहब के अनेक रूढ़ नियमों को न मानने के लिए विवश हो गए, यथा इलहाम का सिद्धांत, इत्यादि। मु'तज़्ली विचारकों का पहला दल अपने मजहब के प्रति जागरूक था और मानवीय विवेक बुद्धि के साथ संगति बिठाने के लिए उसका उदात्तीकरण चाहता था। मु'तज़लियों के संप्रदाय का उद्गम बाहरी प्रभाव से अछूते रहकर हुआ था। (दे0 स्टाइनर और ओबरमान)। किंतु जब ग्रीक दर्शन अनूदित होकर आया तो मु'तज़लियों ने उसे बड़े हौसले के साथ पढ़ा। ग्रीक दर्शन के अध्ययन ने इनके मन में नई नई समस्याएँ उत्पन्न कीं और धर्म में उनकी अभिरुचि स्वत: उसकी ही खातिर पीछे ठेल दी गई।

मुतज़्लियों में कुछ प्रमुख थे, नज्जाम (मृत्यु 845 ई0) जुब्बा' ई (मृत्यु 915 ई0), अल-जाहिज़ (मृत्यु 868 ई0) इत्यादि।[1][2]

अश'अरवाद (मुस्लिम पांडित्यवाद, आशारियावाद)

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अश'अरवाद, मुत'ज़्लवाद के विरुद्ध एक प्रतिक्रियात्मक आंदोलन है। अब्दुल हसन अल-अश'अरी इसके संस्थापक थे (दे0 अरबी दर्शन)। इनका जन्म 260 या 270 हिजरी में बसरा में हुआ था और ये मु'तज़्लीय शिविर में ही प्रशिक्षित थे। 40 साल की अवस्था तक ये मु'तज़्लवादी थे। इनके बारे में यह कहा जाता है कि इन्हें स्वप्न में पैगंबर के दर्शन हुए थे जिनमें उन्होंने इनको कुरान तथा हदीस के नियमों पर चलने के लिए उकसाया था। उन्होंने ऐसा करने की प्रतिज्ञा की तथा अपनी शक्ति भर मु'तज़्लियों से संघर्ष करने का निश्चय किया। सार्वजनिक शास्त्रार्थ में इन्होंने अपने गुरु जुब्बा'इ से बहस की और उन्हें परास्त किया। इन्होंने इ'तिशाल के खंडन में सौ से अधिक पुस्तकें लिखीं। ये ईश्वरीय वस्तुओं के संबंध में किसी भी ऐसे ज्ञान से इन्कार करते थे जो इलहाम से अपनी स्वतंत्र सत्ता रखता हो। उनकी मान्यता थी कि धर्मविज्ञान की इमारत विशुद्ध बुद्धिवादी आधार पर नहीं खड़ी की जा सकती। वे मु'तज़्लियों के इस मत को कि ईश्वर निर्गुण है, अस्वीकार करते थे। उनका यह विश्वास था कि ईश्वर विविध गुणों से संपन्न है, यथा ज्ञान, इच्छा, सामर्थ्य इत्यादि; किंतु ये सभी मनुष्यों में पाए जानेवाले गुणों के अर्थ में नहीं समझे जा सकते। कुरान के संबंध में उनका मत था कि वह ईश्वर की शाश्वत वाणी है।

इच्छा या संकल्प की स्वतंत्रता के संबंध में उनकी स्थापना थी कि मनुष्य किसी वस्तु का सर्जन नहीं कर सकता। ईश्वर ही एकमात्र स्रष्टा या सिरजनहार है। ईश्वर मनुष्य में चुनाव एवं शक्ति के जातीय गुणों को पैदा कर देता है, तत्पश्चात्‌ उन कार्यकलापों की सृष्टि करता है जिनका तालमेल चुनाव एवं शक्ति के साथ बैठता है। प्रेरक सिर्फ वही ईश्वर है। जो बात मनुष्य की शक्ति में निहित है, वह है मात्र 'कस्ब' (अजंन) जिसका अर्थ यही है कि मनुष्य के कार्य उसके चुनाव एवं शक्ति के उन गुणों के अनुरूप हैं जिन्हें ईश्वर ने उसमें पहले से ही पैदा कर रखा है। मनुष्य ईश्वर के कार्यों का लक्ष्यबिंदु (महल्ल) है। मु'तज़्लियों की स्थापना थी कि ईश्वर न्यायी होने के कारण अपने प्राणियों का अनिष्ट कर ही नहीं सकता। ईश्वर ने मनुष्य को कर्म की स्वतंत्रता दी है। अत: ईश्वर नहीं बल्कि स्वंय मनुष्य अच्छे एवं बुरे कृत्यों का निर्माता है। इस दृष्टिकोण को गलत साबित करते हुए अल-अशरी ने यह मत प्रस्तुत किया कि ईश्वर किसी सीमा में नहीं बँधा है। वह अपने इच्छानुसार अपने किसी भी प्राणी का हित या अहित कर सकता है।

परलोक में ईश्वर का साक्षात्कार हो सकने के संबंध में उनका मत यह था कि भौतिक दृष्टि से यह अवश्य ही असंभव है, क्योंकि इससे स्थल विशेष एवं दिशा का संबंध है, फिर भी उसका दर्शन भौतिक नेत्रों की सहायता के बिना किया जा सकता है।

जैसा डी0 बी0 मैक्डोनल कहते हैं, 'अल-अशरी की महान्‌ मौलिक बुद्धि ने तत्वशास्त्रीय धर्मविज्ञान की एक शक्तिशाली प्रणाली की नींव डाली तथा 'पांडित्यवादी कलाम' की वैज्ञानिक बुनियाद के लिए आधारशिला रखी।'

सूफीवाद (रहस्यवाद)

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सूफीवाद इस बात की शिक्षा देता है कि हम अपने अंत:करण को कैसे पवित्र बनाएँ, अपना नैतिक धरातल कैसे दृढ़ करें तथा अपने आंतरिक एवं बाह्य जीवन का कैसे निर्माण करें कि शाश्वत आनंद की उपलब्धि हो सके। आत्मा की शुद्धि ही इसकी विषयवस्तु है, तथा इसकी परिणति एवं लक्ष्य है शाश्वत परमानंद और परम कृपा की प्राप्ति ('शेख उल्‌इस्लाम ज़करिया अंसारी') सूफी यह स्वीकार करते हैं कि ईश्वर द्वारा अपने बंदों पर आरोपित उनके पवित्र गंथ के सभी अधिनियम तथा पैगंबर द्वारा सुझाए गए (परंपरानुगत) सभी कर्तव्य ऐसे आवश्यक अनुबंध हैं जिनके बंधन में सभी वयस्कों एवं प्रौढ़ मस्तिष्कवालों का बँधना जरूरी है। इस अर्थ में सूफीवाद एक विशुद्ध इस्लामी अनुशासन है जो मुस्लिमों के आंतरिक जीवन तथा चरित्र का निर्माण ऐसे कर्तव्यों एवं अधिनियमों, अनुबंधों एवं अनिवार्यताओं के जरिए करता है जिन्हें कोई भी व्यक्ति किसी भी तरह से नहीं छोड़ सकता। किंतु इस्लाम में सुफीवाद का यही समूचा अर्थ नहीं है। इसका एक रहस्यमय अभिप्राय है। दुनिया के रहस्यवादी अर्थ में सूफी वही है जिसे अपने तथा ईश्वर के बीच स्थित सच्चे संबंध की जानकारी है। इस प्रकार सूफी यह जानता है कि वह आंतरिक रूप से ईश्वर के मन में स्थित एक विचार है। विचार होने के कारण ईश्वर के साथ साथ वह भी सार्वकालिक है। बाह्य रूप से वह एक सृजित प्राणी है जिसके रूप में ईश्वर स्वयं सूफी की कार्यक्षमता (या 'शाक़िलत') के अनुसार अपने को प्रकट करता है। वह न तो अपना कोई स्वतंत्र निजी अस्तित्व रखता है और न कोई सत्तात्मक गुण ही (यथा जीवन, ज्ञान, शक्ति इत्यादि)। ईश्वर की सत्ता से उसकी सत्ता है, वह ईश्वर के ही द्वारा देखता है, ईश्वर के ही द्वारा सुनता है। इस अभिप्राय की पुष्टि कुरान के इस पाठ से होती है : 'वही प्रथम है और अंतिम है, वही बाह्य है और अभ्यंतर है और वह सब कुछ जानता है' (कु0 57/2)। इस आयत का विश्लेषण करते हुए पैगंबर ने कहा : 'तुम बाह्य हो और तुमसे ऊपर कुछ भी नहीं; तुम अभ्यंतर हो और तुमसे नीचे कुछ भी नहीं; तुम प्रथम हो और तुमसे पूर्व कुछ भी नहीं; तुम अंतिम हो और तुम्हारे बाद कुछ भी नहीं है।'

सूफीवाद के एक बहुत बड़े अधिकारी फारसी विद्वान जामी का कहनाहै कि रहस्यमय सूफी मत का प्रथम व्याख्याकार मिस्त्र निवासी धुन नून (मृत्यु 245-246 हिज़री) था। धुनश् नून के अभिज्ञान को बग़्दााद के जुनैद (मृत्यु 297) ने संकलित एंव व्यवस्थित किया। जुनैद के मत का द्दढ प्रचार उसके शिष्य, खुरासान के अबू बफ्रर शिबली (मृत्यु 335) ने किया। ये अभिज्ञान अबू नरत्र सर्राज (मृत्यु 378) द्वारा पुस्तक 'लुमा'(संपा0 आर0 ए0 निकोल्सन्‌) में लिपिबद्ध हुए, तदुपरांत अब्दुल कासिम अल क़ुशैरी ने (मृत्यु 437) इन्हें अपनी पुस्तक 'रसैल' में रखा। किंतु इस विचारप्रणाली को इस्लामी रहस्यविद्या में रखनेवाले तथा उन्हें नियमबद्ध करनेवाले व्यक्ति महान्‌ रहस्यवादी शेख मुहिउद्दीन इब्न्‌श् उल्‌ अरबी (560 हिजरी) थे। यह आप ही थे जिन्होंने छ: 'अलायतों' अथवा 'विशेषीकरणों' की योजना समझाई और ऐसे हर अभिव्यक्ति के संबद्ध विषयों का निश्चय किया। ये वज़ुद्दियह (जीव की इकाई) के नाम से प्रसिद्ध संप्रदाय के संस्थापक थे। इमाम गज़ाली (मृत्यु 450 हिजरी) ने सूफीवाद को वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया। उसके व्याप्त प्रभाव के चलते पुरातनपंथी सूफीवाद सुन्नी धर्मविज्ञान के साथ संलग्न हुआ और तबसे ही उसमें उसने अपना स्थान बनाया।

इस्लाम के अभ्युदय के पूर्व पूरब के कुछ स्थल यथा, फारस में जन्दीशापुर, मेसोपोटामिया में हरनि तथा मिस्र में अलेक्सांद्रिया अपनी हेलेनिक संस्कृति के कारण विख्यात थे। इन्हीं स्थानों से हेलेनिक विद्यावैभव पूरब के लोगों में संक्रमित हुआ। ओमैद काल के अरब साम्राज्यवादी गैर-अरबियों के साथ खुलकर मिलने में अपनी हेठी समझते थे। अब्बासियों के अभ्युदय के साथ विजित एवं विजेता जाति के लोग खुलकर मिलने एवं विचार विनिमय करने लगे। ग्रीक विद्या को मुस्लिम विद्वानों के बीच फैलाने में अलमामून ने पहलकदमी की। अरबों का ग्रीक सभ्यता एवं दर्शन से संपर्क, ग्रीक दर्शन का मात्र सामान्य ग्रहण न होकर 'विचारों की उस मौलिक पद्धति का क्रमिक विकास था, जो अरब ससांर में पहले से ही विद्यमान दार्शनिक प्रवृत्तियों द्वारा खास तौर से नियत थी।'

सबसे प्रथम विख्यात मुस्लिम दार्शनिक थे अबू याक़ूब अलकिंदी (830-875 ई0)। विशुद्ध राजवंशी अरब होने के नाते इन्होंने 'प्रथम अरब दार्शनिक' की स्पृहणीय उपाधि अर्जित की। इन्होंने दर्शन के अनेक ग्रंथों का ग्रीक से अरबी में अनुवाद किया तथा अन्य उपलब्ध अनुवादों का संशोधन किया। उनके ग्रंथ केश् प्राय: 266 शीर्षक हमें प्राप्त हैं। अल किंदी को इस्लाम में धर्मनिरपेक्ष विवेकशीलता का आरंभकर्ता माना जाना चाहिए। ज्ञानक्षेत्र का कोई भी विभाग उनकी सतर्क बुद्धि के परीक्षण से बच नहीं पाया था। उनके मौलिक विचारपूर्ण ग्रंथों में 'बुद्धि विषयक प्रबंध' तथा 'पाँच मूल तत्व' बड़े ही महत्त्व के हैं। अल-किंदी ने बुद्धि के चतुर्मुख विभाग का सिद्धांत स्थापित किया; यह अरस्तू के 'डि एनिमा' में प्राप्य नहीं। बहुत से विद्वानों ने इनके मूल उद्गम कोश् जानने का व्यर्थ प्रयत्न किया। मि0 गिल्सन का विचार है कि यह अफ्रोदिसियस के सिकंदर द्वारा रचित डि अनिका से नि:सृत है, किंतु उसमें केवल तीन विभागों की चर्चा है। अल-किंदी का महत्त्व इस बात में है कि वे ग्रीक दार्शनिकों की मनोवैज्ञानिक सामग्री को संचित एवं विकसित करने वाले पहले मुस्लिम विचारक थे।

अल-किंदी की सर्वाधिक महत्त्व वाली पुस्तिका 'पाँच मूल तत्वों' पर है जिसमें पदार्थ, रूप, गति, काल एवं विस्तार विषयक पाँच स्थितियों का वर्णन है। प्राय: सभी यूरोपीय लेखकों ने इन्हें एक कट्टर मु'तज़लवादी करार दिया है, परंतु कुस्तुंतुनियाँ में हाल में ही खोज निकाली गई उनकी कुछ पुस्तिकाओं के आधार पर उन्हें कभी भी सच्चे अर्थ में मु'तजलवादी नहीं कहा जा सकता।

अल्‌ फरबी (मृत्यु 950 ई0) : इस्लाम के सबसे महान्‌ दार्शनिक तथा नव्य प्लेटोवादी फरबी (फराबी, दे0 अरबी दर्शन) प्लेटो और अरस्तू के दर्शनों के सर्वोत्तम विश्लेषक माने जाते हैं। इव्न खल्लिकान के शब्दों में, 'कोई भी मुस्लिम दार्शनिक-विज्ञानों के क्षेत्र में अल फरबी की कोटि तक नहीं पहुँचा है; उनकी कृतियों का अध्ययन तथा उनकी शैली का अनुकरण करके ही अविसिना ने ऐसी सुविज्ञता प्राप्त की तथा स्वत: अपनी ही कृतियों का उपादेय बनाया।' अरस्तू को उन्होंने इतनी पूर्णता के साथ समझा तथा ग्रीक दर्शन के रहस्यों का उद्घाटन इतनी व्यापकता के साथ किया कि वे मुस्लिमों द्वारा 'दूसरे उस्ताद' कहलाए क्योंकि पहले उस्ताद स्वयं अरस्तू थे। अरस्तू के प्रति उनके सारे जोश के बावजूद उन्हें उत्पत्ति विषयक नव्य प्लेटोवादी मान्यताओं का भी चस्का था। उनका विश्वास था कि यह विश्व, ईश्वर से उत्पन्न होकर अवरोहात्मक ढंग से नीचे तक आया है।

अल फरबी की तर्कशास्त्र की पुस्तकों के बारे में अपनी अनुशंसा लिखते हुए सबसे महान्‌ यहूदी दार्शनिक मैभोनिदीस ने ये शब्द कहे। 'मैं तुम्हें तर्कशास्त्रसंबंधी अन्य कोई पुस्तक पढ़ने को न कहकर दार्शनिक अबू नासर अल्‌ फरवी की कृतियों को पढ़ने की संमति दूँगा। अल्‌ फरबी का कहना है कि 'सामान्य सत्यों का निगमन विशेष सत्यों के प्रतिष्ठित हो जाने के बाद ही संभव है, तथा भावात्मक ज्ञान ऐंद्रिय अनुभवों द्वारा प्राप्त ज्ञान की ही परिणति के रूप में हो सकता है।

जहाँ तक बुद्धिवाले सिद्धांत का प्रश्न है, अल फरबी अपने पूर्वाधिकारी अल-किंदी का अनुसरण करते हुए चार प्रकार की बुद्धि की चर्चा करते हैं, यथा, गुप्त अथवा प्रसुप्त बुद्धि (Intellect in Habitu), क्रियानिष्ठ बुद्धि (Intellect in Actu), अर्जित बुद्धि (Intellect Acquistus or Adeptus) तथा माध्यम ज्ञान (Intellect in Actu Absolute)

अल फरबी कारणता के सिद्धांत की विस्तृत व्याख्या अपने 'ज्ञान-रत्न' नामक प्रबंध में करते हैं। अरस्तू की भाँति इनकी भी यह मान्यता है कि कारणों की शृंखला अनंत नहीं है, उद्गमों की अनंतता असंभव है। प्रथम कारण एक तथा शाश्वत हैं। प्रथम कारण एक आवश्यक सत्ता हैं जिसका अस्तित्व दूसरे अस्तित्वों के आकलन के लिए आवश्यक है। इसका बोध किसी मानवीय ज्ञानशक्ति द्वारा नहीं हो सकता। उसकी मूलसत्ता अगम अपार है। सिर्फ यहीं पर अल फरबी दार्शनिक सिद्धांतों को भली भाँति उस रहस्यवाद के साथ मिलाता प्रतीत होता है जो एशियाई इस्लाम धर्म के अंतर्गत बड़ी ही तेजी के साथ विकसित हो रहा था।

इब्ने सिना (980-1037 ई0) - इनका अध्ययन सर्वज्ञानात्मक था। ये अच्छे चिकित्सक तथा महान्‌ दार्शनिक थे। इनका दर्शन नव्य प्लेटोवाद का हल्का सा प्रभाव लिए हुए अरस्तू के सिद्धांतों का अंगीकरण था। इनके द्वारा लिखे गए ग्रंथों की महती संख्या में 'अल शिफा', जो भौतिक विज्ञान, तत्त्वज्ञान एवं गणित का विश्वज्ञानकोश था, सबसे प्रमुख था। इसका विस्तार 18 भागों में है (संपा0 फोर्जेट, लीडेन 1892)।

इब्न सिना ने 'अलशिफा' का एक संक्षिप्त संस्करण भी तैयार किया जिसका नाम 'नजात' रखा जिसके अंतर्गत उन्होंने गालेन तथा हिपोक्रेतु के कथनों को अपने ढंग से उपस्थित किया।

इब्न सिना के अनुसार तर्कशास्त्र का लक्ष्य लोगों को कुछ ऐसे मानदंड प्रस्तुत करना है जिसके आधार पर वे अपने तर्क वितर्कों में गुमराह होने से बच सकते हैं। तर्कशास्त्र विषयक अपने प्रबंध को वे नौ भागों में बाँटते हैं जो अरस्तू के अरबी संस्करणवाले ग्रंथ से साम्य रखता है। इस ग्रंथ में (Isagogi) तथा छंदशास्त्र एवं काव्यशास्त्र भी संमिलित है। इब्न सिना इस बात पर जोर देता है कि गंभीर तर्क सदैव किसी बात की ठीक ठीक परिभाषा करने पर निर्भर रहता है। परिभाषा में वस्तु के गुण, उसकी मूल जाति, उसके व्यवच्छेदक धर्म तथा उसके विशिष्ट लक्षणों को स्पष्ट करना चाहिए; इस प्रकार वह कोरे वर्णन से बिलकुल पृथक्‌ चीज है। सामान्य एवं विशेषों की चर्चा करते हुए इब्ज सिना बताते हैं कि सामान्य का अस्तित्व केवल मनुष्य के मन में ही रहता है। यह एक प्रकार का अमूर्त प्रत्यय है जो केवल मानसिक बोध के रूप में ही रहता है और उसकी कोई वस्तुनिष्ठ यथार्थता नहीं होती। सामान्य बोध की निष्पत्ति विशेष अथवा व्यक्ति तक उसी भाँति होती है जैसे व्यक्ति की सृष्टि के पूर्व सृष्टिकर्ता के मन में वह एक सामान्य प्रत्यय के रूप में था। पदार्थों में सामान्यता का बोध तभी होता है जब विशिष्ट गुणों से उसका सहयोग होता है। इन विशिष्टताओं के अभाव में यह एक मानसिक प्रत्यय मात्र है।

आत्मा, इब्न सिना के अनुसार, क्षमताओं (क़ूबा) अथवा प्रेरक शक्तियों का संग्रह है। सर्वाधिक सरल आत्मा वनस्पति की है जिसके क्रियाव्यापार पोषक तत्त्व ग्रहण एवं प्रजनन तक ही सीमित हैं। पशुओं की आत्मा में वनस्पति की क्षमताओं में सिवा कुछ और बातें भी रहती हैं। इसी तरह मानवात्मा मैं इनके सिवा कुछ और चीजें बढ़ जाती हैं और वह 'बौद्धिक आत्मा' कहलाती है।

ज्ञान या बोध की शक्तियाँ अंशत: बाहरी और अंशत: आंतरिक होती हैं। बाहरी शक्तियाँ शरीर में ही रहती हैं, जिसके भीतर आत्मा वास करती है। इनकी संख्या आठ है जिन्हें इंद्रिय ज्ञान कह सकते हैं, देखने की, सुनने की, स्वाद की, गंध की, शक्ति तथा शीत-ताप-बोध, शुष्कता-आर्द्रता-बोध, कोमल कठोर अवरोधों का बोध और रुक्षता सुचिक्कणता का बोध। ये सारे बोध मिलकर बाह्म पदार्थ के स्वरूप का परिकल्पनात्मक ज्ञान बोधकर्ता की आत्मा को कराते हैं।

इंद्रियबोध की आंतरिक शक्तियाँ निम्नलिखित हैं :

(1) अल मुस्साबिरा (स्वरूपात्मक), (2) अल मुफ्फकिरा (परिचयात्मक), (3) अल वह्म (राय या संमति), (4) अल्‌ हाफ़िजा अथवा अल ज़ाकिरा (स्मृति)।

मनुष्यों एवं पशुओं को विशेषों का बोध इंद्रियों द्वारा होता है, मनुष्य सामान्य का ज्ञान बुद्धि शक्ति द्वारा करता है। मनुष्य की बौद्धिक आत्मा अथवा 'अक़ल्‌' को शारीरिक शक्तियों से पृथक्‌ अपनी निज की शक्तियों का ज्ञान रहता है। इसे एक पृथक्‌ एवं स्वतंत्र सत्ता के रूप में मान्यता देना ठीक होगा, यद्यपि संयोगवश शरीर से इसका सह संबंध है।

जहाँ तक भौतिक विज्ञान का प्रश्न है, इब्न सिना प्रकृति की शक्तियों की चर्चा करते हैं, जो तीन प्रकार की होती हैं - यथा गुरुत्व जो कि शरीर का ही एक आवश्यक तत्त्व है जिसमें ये शक्तियाँ पाई जाती हैं - वे शक्तियाँ जो शरीर के बाहर रहते हुए भी उस पर प्रभाव डालती हैं, जैसे कारण, गति या विराम और इनके अलावा वे शक्तियाँ जो गति का उत्पादन सीधे ही बिना किसी बाहरी उत्तेजना के कर देती हैं। कोई भी शक्ति असीम नहीं है, इन्हें घटाया बढ़ाया जा सकता है तथा इनके परिणाम हमेशा असीम होते हैं। यद्यपि काल या समय स्वयं गति नहीं है, तथापि वह नक्षत्रों की गति के सहारे जाना एवं मापा जा सकता है। अल किंदी का अनुसरण करता हुआ इब्न सिना स्थान की परिभाषा इस तरह प्रस्तुत करता है 'कि यह आधान (containar) की वह सीमा है जो धारित या समाविष्ट से जाकर मिलती है', तथा जिसे हम शून्य (खला) कहते हैं, वह केवल एक नाम तथा असंभावित वस्तु है।

इब्न सिना ईश्वर को ही 'आवश्यक सत्ता' (वाज़िब उल बजूद) तथा परमतत्व मानता है। भौतिक विज्ञानों में जिन पदार्थों का अध्ययन किया जाता है वे केवल संभावित 'वस्तुएँ' (मुमकिन उल बजूद) हैं। पूरे अनंत में एक मात्र ईश्वर ही आवश्यक रूप से अस्तित्ववान्‌ रहता है।

दर्शन का प्रयोजन ईश्वर को जानना और जितना संभव हो सके, उतना उसी के समान होना (तशव्वुह बिल्लाह) है। इब्न सिना के अनुसार इसकी प्राप्ति हमें शिक्षा एवं ईश्वरीय दिव्य दृष्टि के द्वारा हो सकती है।

ग्यारहवीं सदी के मोड़ पर आकर पूर्व में अरबी दर्शन एक अंत पर आ पहुँचता है। अल ग़्ज़ााली (गिज़ाली 1059-1111 ई0, दे0 अरबी दर्शन) दार्शनिकों के उपदेशों का सीधा विरोध अपनी पुस्तक 'तहफत उल फलसिफा' (दार्शनिकों का विनाश) में धर्म के हित के लिए करता है और दर्शन की इस क्षमता से भी, कि वह सत्य तक पहुँच सकता है, इनकार करता है। उसे दार्शनिक पद्धतियों में व्यक्ति के अमरत्व का सिद्धांत तथा ईश्वर के पूर्वज्ञान एवं पूर्वविधान में विश्वास की बात दिखाई नहीं देती जिसके द्वारा ऐसा माना जाता है कि ईश्वर जीवन की छोटी छोटी घटनाओं को पहले से ही जानता है और उन्हें पहले ही देख ले सकता है तथा किसी भी समय उनमें हस्तक्षेप कर सकता है। अल ग़्ज़ााली की पुस्तक के प्रभाव के प्रकाशन ने दार्शनिकों का मुँह बंद कर दिया।

अरबी दर्शन ने फिर भी अपना अस्तित्व कायम रखा और स्पेन मूर खलीफा तंत्र में फैला। विशेषत: इसका प्रसार कारदोवा में हुआ जो प्रसिद्ध शिक्षास्थली थी और जहाँ मुस्लिम, यहूदी और ईसाई बिना किसी दखलंदाजी के साथ बैठकर पढ़ते थे। पाश्चात्य मुस्लिम विचारकों इब्नी रश्द (अवरोज) (इब्ने रुब्द, 1126-1138 ई0, दे0 अरबी दर्शन) सबसे अधिक महत्त्व के थे। मंक के शब्दों में 'अरस्तू की कृतियों के सबसे गंभीर भाष्यकार में उनकी गणना थी।' इसके साथ साथ वे मुस्लिम विधान के एक सफल व्याख्याकार भी थे। बहुत दिनों तक यूरोप में इब्न रश्द सर्वाधिक श्रद्धा के पात्र रहे और उनकी किताबें विभिन्न विश्वविद्यालयों में पढ़ी जाती रहीं। उनके दर्शन की टीकाएँ यूरोप की बहुत-सी भाषाओं में मौजूद थीं।

इब्नी बजा (Avempace) (मृत्यु 1138 ई0), इब्न मिस्क बइह्‌ (मृत्यु 1130 ई0), शेख शहाबुद्दीन जो शेख उल इशराक़ के नाम से विख्यात थे (मृत्यु 1190 ई0), आदि कुछ अन्य प्रसिद्ध मुस्लिम दार्शनिक हैं।

यह अब एक प्रतिस्थापित तथ्य हो चुका है कि मुस्लिम दार्शनिकों के अपने स्वतंत्र दृष्टिकोण रहे हैं जिन्होंने ग्रीक विचारों का अनुकरण तो दूर, उनकी स्वतंत्र आलोचना की तथा उन्हें आत्मअसंगतियों एवं आत्मविरोधों से शुद्ध करने का प्रयास किया।

इन्हें भी देखें

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  1. "डार्विन से पहले बंदर से इंसान बनने के सफ़र को बताने वाला मुस्लिम विचारक". मूल से 15 जून 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 12 अप्रैल 2020.
  2. "जब काबे की हिफ़ाज़त के लिए एक सांप तैनात करना पड़ा". मूल से 14 अक्तूबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 12 अप्रैल 2020.

संदर्भ ग्रन्थ

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  • अल-जाहिज़ : किताब अलहयवान ;
  • दि एन्साइक्लोपीडिया ऑव इस्लाम, लाइडेन;
  • ई0 बी0 ब्राऊन : ए लिट्रेरी हिस्ट्री ऑव पर्शिया;
  • डी0 एल्‌0 लिदरी : अरेबिक थॉट ऐंड इट्स प्लेस इन हिस्ट्री; *
  • शाह वली उल्लाह : हुज्जत-उल्लाह-ए बालिगा;
  • अब्दुल करीम शरिस्तानी : किताब उल्‌ मिलल वा निहाल;
  • इब्न इ खल्दून : मुकदमा;
  • जामी : नफ़हत्‌ उल उंस;
  • आर0 ए0 निकोल्सन : स्टडीज इन इस्लामिक मिस्टिसिज्म;
  • सय्यद उंद्लुसी : तबाक़त उल उमाम।
  • गोल्ड जिहेर तथा उस्बरवेग हाइंजे की संदर्भ सूचियाँ, भाग 2 - 28, 29 (जिनमें अरबी तथा यहूदी दर्शनों के अच्छे विवरण हैं।)