प्राचीन हिन्दू धार्मिक और पौराणिक वर्णित समय चक्र आश्चर्यजनक रूप से एक समान हैं। प्राचीन भारतीय मापन पद्धतियां, अभी भी प्रयोग में हैं (मुख्यतः मूल सनातन हिन्दू धर्म के धार्मिक उद्देश्यों में)।

वर्ष के हिन्दू पंचांग का एक पृष्ठ
हिन्दू समय मापन, लघुगणकीय पैमाने पर

इसके साथ साथ ही हिन्दू वैदिक ग्रन्थों मॆं लम्बाई-क्षेत्र-भार मापन की भी इकाइयाँ परिमाण सहित उल्लेखित हैं।यह सभी योग में भी प्रयोग में हैं।

हिन्दू समय चक्र सूर्य सिद्धांत के पहले अध्याय के श्लोक 11–23 में आते हैं।[1]:

(श्लोक 11) वह जो कि श्वास (प्राण) से आरम्भ होता है, यथार्थ कहलाता है; और वह जो त्रुटि से आरम्भ होता है, अवास्तविक कहलाता है। छः श्वास से एक विनाड़ी बनती है। साठ विनाड़ियों से एक नाड़ी बनती है।

(12) और साठ नाड़ियों से एक दिवस (दिन और रात्रि) बनते हैं। तीस दिवसों से एक मास (महीना) बनता है। एक नागरिक (सावन) मास सूर्योदयों की संख्याओं के बराबर होता है।

(13) एक चंद्र मास, उतनी चंद्र तिथियों से बनता है। एक सौर मास सूर्य के राशि में प्रवेश से निश्चित होता है। बारह मास एक वर्ष बनाते हैं। एक वर्ष को देवताओं का एक दिवस कहते हैं।

(14) देवताओं और दैत्यों के दिन और रात्रि पारस्परिक उलटे होते हैं। उनके छः गुणा साठ देवताओं के (दिव्य) वर्ष होते हैं। ऐसे ही दैत्यों के भी होते हैं।

(15) बारह सहस्र (हज़ार) दिव्य वर्षों को एक चतुर्युग कहते हैं। यह तैंतालीस लाख बीस हज़ार सौर वर्षों का होता है।

(16) चतुर्युगी की उषा और संध्या काल होते हैं। कॄतयुग या सतयुग और अन्य युगों का अन्तर, जैसे मापा जाता है, वह इस प्रकार है, जो कि चरणों में होता है:

(17) एक चतुर्युगी का दशांश को क्रमशः चार, तीन, दो और एक से गुणा करने पर कॄतयुग और अन्य युगों की अवधि मिलती है। इन सभी का छठा भाग इनकी उषा और संध्या होता है।

(18) इकहत्तर चतुर्युगी एक मन्वन्तर या एक मनु की आयु होती हैं। इसके अन्त पर संध्या होती है, जिसकी अवधि एक सतयुग के बराबर होती है और यह प्रलय होती है।

(19) एक कल्प में चौदह मन्वन्तर होते हैं, अपनी संध्याओं के साथ; प्रत्येक कल्प के आरम्भ में पंद्रहवीं संध्या/उषा होती है। यह भी सतयुग के बराबर ही होती है।

(20) एक कल्प में, एक हज़ार चतुर्युगी होते हैं और फ़िर एक प्रलय होती है। यह ब्रह्मा का एक दिन होता है। इसके बाद इतनी ही लम्बी रात्रि भी होती है।

(21) इस दिन और रात्रि के आकलन से उनकी आयु एक सौ वर्ष होती है; उनकी आधी आयु निकल चुकी है और शेष में से यह प्रथम कल्प है।

(22) इस कल्प में, छः मनु अपनी संध्याओं समेत निकल चुके, अब सातवें मनु (वैवस्वत: विवस्वान (सूर्य) के पुत्र) की सत्ताईसवीं चतुर्युगी बीत चुकी है।

(23) वर्तमान में, अट्ठाईसवीं चतुर्युगी का द्वापर युग बीत चुका है तथा भगवान कृष्ण के अवतार समाप्ति से ५१२३वाँ वर्ष (ईस्वी सन् २०२१ में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से) प्रगतिशील है। कलियुग की कुल अवधि ४,३२,००० वर्ष है।

हिन्दू समय मापन, (काल व्यवहार) का सार निम्न लिखित है:

 
लघुगणकीय पैमाने पर, हिन्दू समय इकाइयाँ

नाक्षत्रीय मापन

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  • एक परमाणु मानवीय चक्षु के पलक झपकने का समय = लगभग ४ सैकिण्ड
  • एक विघटि = ६ परमाणु = २४ सैकिण्ड
  • एक घटि या घड़ी = ६० विघटि = २४ मिनट
  • एक मुहूर्त = २ घड़ियां = ४८ मिनट
  • एक नक्षत्र अहोरात्रम या नाक्षत्रीय दिवस = ३० मुहूर्त (दिवस का आरम्भ सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक, न कि अर्धरात्रि से)

शतपथ ब्राह्मण के आधार पर वैदिक कालमानम् -शतपथ.१२|३|२|५ इस प्रकार है -

  1. द्वयोः (२) त्रुट्योः- एकः (१) लवः ।
  2. द्वयोः (२) लवयोः- एकः (१) निमेषः ।
  3. पंचशानाम् (१५) निमेषाणाम् एकम् (१) इदानि (कष्ठा) ।
  4. पंचदशानाम् (१५) इदानिनाम् एकम् (१) एतर्हि ।
  5. पंचदशानाम् (१५) एतर्हिणाम् एकम (१) क्षिप्रम् ।
  6. पंचदशानाम् (१५) क्षिप्राणां एकः (१) मुहूर्तः ।
  7. त्रिंशतः (३०) मुहूर्तानाम् एकः(१) मानुषोsहोरात्रः ।
  8. पंचदशानाम् (१५) अहोरात्राणाम् (१) अर्धःमासः ।
  9. त्रिंशतः (३०) अहोरात्राणाम् एकः (१) मासः ।
  10. द्वादशानाम् (१२) मासानाम् एकः (१) संवत्सरः ।
  11. पंचानाम् (५) संवत्सराणाम् एकम् (१) युगम् ।
  12. द्वादशानाम् (१२) युगानाम् एकः (१) युगसंघः भवति ।
वैष्णवं प्रथमं तत्र बार्हस्पत्यं ततः परम् ।
ऐन्द्रमाग्नेयंचत्वाष्ट्रं आहिर्बुध्न्यं पित्र्यकम्॥
वैश्वदेवं सौम्यंचऐन्द्राग्नं चाssश्विनं तथा ।
भाग्यं चेति द्वादशैवयुगानिकथितानि हि॥
  1. एके युगसंघे चान्द्राः षष्टिः संवत्सराः भवन्ति।

समय का मापन प्रारम्भ एक सूर्योदयसे और अहोरात्र का मापन का समापन अपर सूर्योदय से होता है ।अर्धरात्री से नहीं होता है| जैसा कि कहा है-

सूर्योदयप्रमाणेन अहःप्रामाणिको भवेत्।
अर्धरात्रप्रमाणेन प्रपश्यन्तीतरे जनाः ॥

विष्णु पुराण में दी गई एक अन्य वैकल्पिक पद्धति समय मापन पद्धति अनुभाग, विष्णु पुराण, भाग-१, अध्याय तॄतीय निम्न है:

  • १० पलक झपकने का समय = १ काष्ठा
  • ३५ काष्ठा= १ कला
  • २० कला= १ मुहूर्त
  • १० मुहूर्त= १ दिवस (२४ घंटे)
  • ३० दिवस= १ मास
  • ६ मास= १ अयन
  • २ अयन= १ वर्ष, = १ दिव्य दिवस

छोटी वैदिक समय इकाइयाँ

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  • एक तॄसरेणु = 6 ब्रह्मा '.
  • एक त्रुटि = 3 तॄसरेणु, या सैकिण्ड का 1/1687.5 भाग
  • एक वेध =100 त्रुटि.
  • एक लावा = 3 वेध.[2]
  • एक निमेष = 3 लावा, या पलक झपकना
  • एक क्षण = 3 निमेष.
  • एक काष्ठा = 5 क्षण, = 8 सैकिण्ड
  • एक लघु =15 काष्ठा, = 2 मिनट.[3]
  • 15 लघु = एक नाड़ी, जिसे दण्ड भी कहते हैं। इसका मान उस समय के बराबर होता है, जिसमें कि छः पल भार के (चौदह आउन्स) के ताम्र पात्र से जल पूर्ण रूप से निकल जाये, जबकि उस पात्र में चार मासे की चार अंगुल लम्बी सूईं से छिद्र किया गया हो। ऐसा पात्र समय आकलन हेतु बनाया जाता है।
  • 2 दण्ड = एक मुहूर्त.
  • 6 या 7 मुहूर्त = एक याम, या एक चौथाई दिन या रत्रि.[2]
  • 4 याम या प्रहर = एक दिन या रात्रि। [4]

चान्द्र मापन

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  • एक तिथि वह समय होता है, जिसमें सूर्य और चंद्र के बीच का देशांतरीय कोण बारह अंश बढ़ जाता है। तिथिसिद्धान्त का खण्डतिथि और अखण्डतिथि के हिसाब से दो भेद है। वेदांगज्योतिष के अनुसार अखण्डतिथि माना जाता है। जिस दिन चान्द्रकला क्षीण हो जाता है उस दिन को अमावास्या माना जाता है। दुसरे दिन सूर्योदय होते ही शुक्लप्रतिपदा, तीसरे दिन सूर्योदय होते ही द्वितीया। इसी क्रम से १५ दिन में पूर्णिमा होती है। फिर दुसरे दिन सूर्योदय होते ही कृष्णप्रतिपदा। और फिर तीसरे दिन सूर्योदय होते ही द्वितीया,और इसी क्रम से तृतीया चतुर्थी आदि होते है। १४ वें दिन में ही चन्द्रकला क्षीण हो तो उसी दिन कृष्णचतुर्दशी टूटा हुआ मानकर दर्शश्राद्धादि कृत्य किया जाता है। ऐसा न होकर १५ वें दिन में ही चन्द्रकला क्षीण हो तो तिथियाँ टूटे बिना ही पक्ष समाप्त होता है | इस कारण कभी २९ दिन का और कभी ३० दिन का चान्द्रमास माना जाता है। वेदांगज्योतिष भिन्न सूर्यसिद्धान्तादि लौकिक ज्योतिष का आधार में खण्डतिथि माना जाता है। उनके मत मे तिथियाँ दिन में किसी भी समय आरम्भ हो सकती हैं और इनकी अवधि उन्नीस दिन से अधिक छब्बीस घंटे तक हो सकती है।
  • एक पक्ष या पखवाड़ा = पंद्रह तिथियाँ
  • चान्द्रमास दो प्रकारका होता है -एक अमान्त और पूर्णिमान्त। पहला शुक्लप्रतिपदा से अमावास्या तक अर्थात् शुक्लादिकृष्णान्त मास वेदांग ज्योतिष मानता है। इसके अलावा सूर्यसिद्धान्तादि लौकिक ज्योतिष के पक्षधर दूसरा पक्ष मानते हैं पूर्णिमान्त। अर्थात् कृष्णप्रतिपदासे आरम्भ कर पूर्णिमा तक एक मास।
  • एक अयन = 3 ॠतुएं

वेदांग ज्योतिष के आधार पर पंचवर्षात्मक युग माना जाता है। प्रत्येक ६० वर्ष में १२ युग व्यतीत हो जाते हैं। १२ युगों के नाम आगे बताया जा चुके हैं। शुक्लयजुर्वेदसंहिता के मन्त्रों २७/४५, ३०/१५ , २२/२८, २७/४५ ,२२/३१ मे पंचसंवत्सरात्मक युग का वर्णन है। ब्रह्माण्डपुराण १/२४/१३९-१४३ , लिंगपुराण १/६१/५०-५४, वायुपुराण १/५३/१११-११५ , महाभारत के आश्वमेधिक पर्व ४४/२, ४४/१८ , कौटलीय अर्थशास्त्र २/२०, सुश्रुतसंहिता सूत्रस्थान-६/३-९, पूर्वोक्त ग्रन्थ वेदांग ज्योतिष के अनुगामी हैं।

ऊष्ण कटिबन्धीय मापन

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  • एक याम = 7½ घटि
  • 8 याम अर्ध दिवस = दिन या रात्रि
  • एक अहोरात्र = नाक्षत्रीय दिवस (जो कि सूर्योदय से आरम्भ होता है)

अन्य अस्तित्वों के सन्दर्भ में काल-गणना

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पितरों की समय गणना
  • 15 मानव दिवस = एक पितृ दिवस
  • 30 पितृ दिवस = 1 पितृ मास
  • 12 पितृ मास = 1 पितृ वर्ष
  • पितृ जीवन काल = 100 पितृ वर्ष= 1200 पितृ मास = 36000 पितृ दिवस= 18000 मानव मास = 1500 मानव वर्ष
देवताओं की काल गणना
  • 1 मानव वर्ष = एक दिव्य दिवस
  • 30 दिव्य दिवस = 1 दिव्य मास
  • 12 दिव्य मास = 1 दिव्य वर्ष
  • दिव्य जीवन काल = 100 दिव्य वर्ष= 36000 मानव वर्ष

विष्णु पुराण के अनुसार काल-गणना विभाग, विष्णु पुराण भाग १, तॄतीय अध्याय के अनुसार:

 
चार युग
  • 2 अयन (छः मास अवधि, ऊपर देखें) = 360 मानव वर्ष = एक दिव्य वर्ष
  • 4,000 + 400 + 400 = 4,800 दिव्य वर्ष = 1 सत युग
  • 3,000 + 300 + 300 = 3,600 दिव्य वर्ष = 1 त्रेता युग
  • 2,000 + 200 + 200 = 2,400 दिव्य वर्ष = 1 द्वापर युग
  • 1,000 + 100 + 100 = 1,200 दिव्य वर्ष = 1 कलि युग
  • 12,000 दिव्य वर्ष = 4 युग = 1 महायुग (दिव्य युग भी कहते हैं)
ब्रह्मा की काल गणना
  • 1000 महायुग= 1 कल्प = चार अरब बत्तीस करोड़ मानव वर्ष; और यही सूर्य की खगोलीय वैज्ञानिक आयु भी है.

ब्रह्मा का एक दिवस (दिन+रात) दो कल्प के बराबर होता है. ब्रह्मा का एक दिवस, एक दिन(=1कल्प) और एक रात (=1कल्प) मिलकर बनाते हैं.

  • ब्रह्मा का एक दिवस (दिन+रात) अर्थात (एक कल्प की रात + एक कल्प का दिन) = 8 अरब 64 करोड़ मानव वर्ष का होता है.
  • 30 ब्रह्मा के दिन = 1 ब्रह्मा का मास (दो खरब 59 अरब 20 करोड़ मानव वर्ष)
  • 12 ब्रह्मा के मास = 1 ब्रह्मा के वर्ष (31 खरब 10 अरब 4 करोड़ मानव वर्ष)
  • 50 ब्रह्मा के वर्ष = 1 परार्ध
  • 2 परार्ध= 100 ब्रह्मा के वर्ष= 1 महाकल्प (ब्रह्मा का जीवन काल)(31 शंख 10 खरब 40अरब मानव वर्ष)

ब्रह्मा का एक दिन अथवा एक रात जितनी अवधि को कल्प कहते हैं जो 4,32,00,00,000 मानव वर्ष की होती है. जो 10,000 भागों में बंटा होता है, जिसे चरण कहते हैं: एक चरण 4,32,000 साल का होता है.

चारों युग
4 चरण (1,728,000 सौर वर्ष)सत युग
3 चरण (1,296,000 सौर वर्ष) त्रेता युग
2 चरण (864,000 सौर वर्ष)द्वापर युग
1 चरण (432,000 सौर वर्ष)कलि युग

[4] Archived 2015-06-25 at the वेबैक मशीन

यह चक्र ऐसे दोहराता रहता है, कि ब्रह्मा के एक दिन में 1000 महायुग हो जाते हैं और ब्रह्मा की रात्रि में 1000 महायुग हो जाते हैं. इस प्रकार, ब्रह्मा के एक दिवस (दिन+रात) में 2000 महायुग/ चतुर्युगी हो जाते हैं.

  • एक उपरोक्त युगों का चक्र = एक महायुग (43 लाख 20 हजार सौर वर्ष)
  • श्रीमद्भग्वदगीता के अनुसार "सहस्र-युग अहर-यद ब्रह्मणो विदुः", अर्थात ब्रह्मा का एक दिन = 1000 महायुग. इसके अनुसार ब्रह्मा का एक दिन = 4 अरब 32 करोड़ सौर वर्ष. इसी प्रकार इतनी ही अवधि ब्रह्मा की रात्रि की भी है.
  • एक मन्वन्तर में 71 महायुग (306,720,000 सौर वर्ष) होते हैं. प्रत्येक मन्वन्तर के शासक एक मनु होते हैं.
  • प्रत्येक मन्वन्तर के बाद, एक संधि-काल होता है, जो कि कॄतयुग के बराबर का होता है (1,728,000 = 4 चरण) (इस संधि-काल में प्रलय होने से पूर्ण पॄथ्वी जलमग्न हो जाती है.)
  • एक कल्प में 432,000,0000 अर्थात 4 अरब 32 करोड़ सौर वर्ष होते हैं, जिसे आदि संधि कहते हैं, जिसके बाद 14 मन्वन्तर और संधि काल आते हैं
  • ब्रह्मा का एक दिन बराबर है:
(14 गुणा 71 महायुग) + (15 x 4 चरण)
= 994 महायुग + (60 चरण)
= 994 महायुग + (6 x 10) चरण
= 994 महायुग + 6 महायुग
= 1,000 महायुग


दो कल्प के बराबर ब्रह्मा का एक दिवस(दिन+रात) होता है.

जहाँ, एक कल्प में, एक हज़ार चतुर्युगी{=43,20,000 ×1000साल} का दिन होता है और फ़िर इस कल्प के बाद उतनी ही अवधि अर्थात एक कल्प की रात्रि आती है.

और ब्रह्मा की यह रात्रि एक कल्प जितना लम्बा प्रलयकाल {=43,20,000 ×1000साल}होता है।

इस प्रकार, ब्रह्मा के एक दिवस (दिन+रात) में 14 मनुवंतरों का एक कल्प और एक पूरा कल्प जितनी रात्रि का लम्बा प्रलयकाल बीत जाता है.

अस्तु , ब्रह्मा का एक दिवस दो कल्प अर्थात 8 अरब 64 करोड़ साल जितनी लम्बी अवधि का होता है.

1 कल्प = 1000 चतुर्युगी 1 कल्प = 14 मनवंतर 1 मनवंतर = 71 चतुर्युगी

  • (71× 43,20,000=30,67,20,000 मानव वर्ष) यहाँ आश्चर्य जनक रूप से गौर करने लायक तथ्य यह है कि सूर्य द्वारा अपने गैलेक्सी के केंद्र अर्थात ब्लैक होल का एक चक्कर लगाने में लगभग इतना ही समय लगता है.

1 चतुर्युगी = 1 महायुग 1 महायुग = सतयुग+त्रेतायुग+द्वापरयुग+कलयुग 1 महायुग = कलयुग के 10 चरण 1 चरण = 1 कलयुग 1 कलयुग = 4,32,000 मानव वर्ष 1 द्वापरयुग = 2 चरण कलयुग 1 त्रेता युग = 3 चरण कलयुग 1 सतयुग = 4 चरण कलयुग

अब ब्रह्मा की आयु 100 साल की मानी गई है तो ब्रह्मा की कुल आयु की गणना निम्नवत् की जा सकती है:-

100×360=36000 दिवस ( एक माह=30 दिवस माने गए हैं)

36000×2= 72000 कल्प ( ब्रह्मा का एक दिवस= 2 कल्प)

72000×4,32,00,00,000 =31,10,40,00,00,00,000 मानव वर्ष।

यहाँ, रोचक तथ्य यह है कि ब्रह्मा का एक दिवस, दो कल्प अर्थात 8 अरब 64 करोड़ साल का होता है और वैज्ञानिकों द्वारा लगभग यही आयु , हमारे सूर्य की मानी जाती है।

इस प्रकार 36000 सूर्य की कुल आयु के बराबर है ब्रह्मा की आयु।

'पाल्या' समय की एक इकाई है. यह इकाई, भेड़ की ऊन का एक योजन ऊंचा घन (यदि प्रत्येक सूत्र एक शताब्दी में चढ़ाया गया हो) बनाने में लगे समय के बराबर है। दूसरी परिभाषा अनुसार, यह एक छोटी चिड़िया (यदि वह प्रत्येक रेशे को प्रति सौ वर्ष में उठाती है) द्वारा किसी एक वर्गमील के सूक्ष्म रेशों से भरे कुएं को रिक्त करने में लगे समय के बराबर है.

यह इकाई भगवान आदिनाथ के अवतरण के समय की है। यथार्थ में यह 100,000,000,000,000 पाल्य पहले था।

विभिन्न ग्रन्थों में काल-मापक शब्द

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महाभारत में

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महाभारत के श्लोक संख्या 12.231.12–31 में पलक झपकने में लगा समय (निमेश) से लेकर ब्रह्मा के दिन (कल्प) और रात (प्रलय) का उल्लेख है।[5]

व्‍यास जी बोले- बेटा! सृष्टि के आरम्‍भ में अनादि, अनन्‍त, अजन्‍मा, दिव्‍य, अजर-अमर, ध्रुव, अविकारी, अतर्क्‍य और ज्ञानातीत ब्रह्मा ही रहता है।

काष्ठा निमेषा दश पञ्च चैव त्रिंशत्तु काष्ठा गणयेत्‌ कलां ताम्‌ ।
त्रिंशत्कलक्षापि भवेन्मुहूर्तो भागः कलाया दशमश्च यः स्यात्‌ ॥ १२ ॥

(अब काल का विभाग इस प्रकार समझना चाहिये) पंद्रह निमेष की एक काष्‍ठा और तीस काष्‍ठा की एक कला गिननी चाहिये। तीस कला का एक मुहूर्त होता है। उसके साथ कला का दसवॉ भाग और सम्मिलित होता है अर्थात तीस कला और तीन काष्‍ठा का एक मुहूर्त होता है। तीस मुहूर्त का एक दिन रात होता है। महर्षियों ने दिन और रात्रि के मुहूर्तों की संख्‍या उतनी ही बतायी है।

त्रिंशन्मुहूर्तं तु भवेदहश्च रात्रिश्च संख्या मुनिभिः प्रणीता ।
मास: स्मृतो रात्र्यहनी च त्रिंशत्‌ संवत्सरो द्वादशमास उक्तः ॥ १३ ॥[6]

तीस रात-दिन का एक मास और बारह मासों का एक संवत्‍सर बताया गया है। विद्वान पुरुष दो अयनों को मिलाकर एक संवत्‍सर कहते हैं। वे दो अयन हैं- उत्तरायण और दक्षिणायन। मनुष्‍यलोक के दिन-रात का विभाग सूर्यदेव करते हैं। रात प्राणियों के सोने के लिये है और दिन काम करने के लिये। मनुष्‍यों के एक मास में पितरों का एक दिन-रात होता है। शुक्‍लपक्ष उनके काम-काज करने के लिये दिन है और कृष्‍णपक्ष उनके विश्राम के लिये रात है।

संवत्सरं द्वे त्वयने वदन्ति संख्याविदो दक्षिणमुत्तरं च ॥ १४ ॥

विद्वान पुरुष दो अयनोंको मिलाकर एक संवत्सर कहते हैं। वे दो अयन हैं--उत्तरायण और दक्षिणायन ।

अहोरात्रे विभजते सूर्यो मानुषलौकिके ।
रात्रि: स्वप्लाय भूतानां चेष्टायै कर्मणामह: ॥ १५ ॥

मनुष्यलोक के दिन-रात का विभाग सूर्यदेव करते हैं। रात प्राणियों के सोने के लिये है और दिन काम करने के लिये ।

पित्र्ये राग्यहनी मासः प्रविभागस्तयोः पुनः ।
शुक्लोऽह: कर्मचेष्टायां कृष्णः स्पप्नाय शर्वरी ॥ १६ ॥

मनुष्यों के एक मास में पितरों का एक दिन-रात होता है। शुक्लपक्ष उनके काम-काज करने के लिये दिन है और कृष्णपक्ष उनके विश्राम के लिये रात है ।

दैवे रात्यहनी वर्ष प्रविभागस्तयोः पुनः ।
अहस्तत्रोदगयन रात्रिः स्याद्‌ दक्षिणायनम्‌ ॥ १७ ॥

मनुष्यों का एक वर्ष देवताओं के एक दिन-रातके बराबर है, उनके दिन-रात का विभाग इस प्रकार है। उत्तरायण उनका दिन है और दक्षिणायन उनकी रात्रि ।

ये ते रात्यहनी पूर्व कीर्तिते जीवलौकिके ।
तयोः संख्याय वर्षग्रं ब्राह्मे वक्ष्याम्पहःक्षपे || १८ ।।
पृथक्‌ संवत्सराग्राणि प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वशः ।
कृते त्रेतायुगे चैव द्वापरे च कलौ तथा ॥ १९ ॥

पहले मनुष्यों के जो दिन-रात बताये गये हैं, उन्हीं की संख्या के हिसाब से अब मैं ब्रह्मा के दिन-रात का मान बताता हूँ। साथ ही सत्ययुग, त्रेता, द्वापए और कलियुग - इन चारों युगोंकी वर्ष-संख्या भी अलग-अलग बता रहा हूँ ।

चत्वार्याहुः सहस्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगम्‌ ।
तस्य तावच्छती संध्या संध्यांशश्च तथाविधः ॥ २० ॥

देवताओं के चार हजार वर्षो का एक सत्ययुग होता है। सत्ययुग में चार सौ दिव्य वर्षों की संध्या होती है और उतने ही वर्षो का एक संध्यांश भी होता है (इस प्रकार सत्ययुग अड़तालीस सौ दिव्य वर्षों का होता है) ।

इतरेषु ससंध्येषु संध्यांशेषु ततस्त्रिषु ।
एक पादेन हीयन्ते सहस्राणि शतानि च ॥ २१ ॥

संध्या और संध्यांशों सहित अन्य तीन युगों में यह (चार हजार आठ सौ वर्षो की) संख्या क्रमशः एक-एक चौथाई घटती जाती है।

एतानि शाश्वताँललोकान्‌ धारयन्ति सनातनान्‌ ।
एतद्‌ ब्रह्माविदां तात विदितं ब्रह्म शाश्वतम्‌ ॥ २२ ॥

ये चारों युग प्रवाहरूप से सदा रहनेवाले सनातन लोकों को धारण करते हैं। तात ! यह युगात्मक काल ब्रह्मवेत्ताओं के सनातन ब्रह्म का ही स्वरूप है।

चतुष्पात्‌ सकलो धर्म: सत्यं चैव कृते युगे ।

नाधर्मेणागम: कश्चित्‌ परस्तस्य प्रवर्तते ।। २३ ।।

सत्ययुगमें सत्य और धर्मके चारों चरण मौजूद रहते हैं--उस समय सत्य और धर्मका पूरा-पूरा पालन होता है उस समय कोई भी धर्मशास्त्र अधर्मसे संयुक्त नहीं होता; उसका उत्तम रीतिसे पालन होता है || २३ ।।

इतरेष्वागमाद्‌ धर्म: पादशस्त्ववरोप्यते ।

चौर्यकानृतमायाभिर धर्म श्वोपचीयते ।। २४ ।।

अन्य युगोंमें शास्त्रोक्त धर्मका क्रमश: एक-एक चरण क्षीण होता जाता है और चोरी, असत्य तथा छल-कपट आदिके द्वारा अधर्मकी वृद्धि होने लगती है ।।

अरोगा: सर्वसिद्धार्थ श्चितुर्वर्षशतायुष: ।

कृते त्रेतायुगे त्वेषां पादशो हसते वय: ।। २५ ।।

सत्ययुगके मनुष्य नीरोग होते हैं। उनकी सम्पूर्ण कामनाएँ सिद्ध होती हैं तथा वे चार सौ वर्षोकी आयुवाले होते हैं। त्रेतायुग आनेपर उनकी आयु एक चौथाई घटकर तीन सौ वर्षोकी रह जाती है। इसी प्रकार द्वापरमें दो सौ और कलियुगमें सौ वर्षोकी आयु होती है ।। २५ ||

वेदवादाश्वानुयुगं हसन्तीतीह न: श्रुतम्‌ ।

आयूंषि चाशिषश्चैव वेदस्यैव च यत्फलम्‌ ।। २६ ।।

त्रेता आदि युगोंमें वेदोंका स्वाध्याय और मनुष्योंकी आयु घटने लगती है, ऐसा सुना गया है। उनकी कामनाओंकी सिद्धिमें भी बाधा पड़ती है और वेदाध्ययनके फलमें भी न्यूनता आ जाती है || २६ ।।

अन्ये कृतयुगे धर्मास्त्रितायां द्वापरेडपरे ।

अन्ये कलियुगे नृणां युगहासानुरूपत: ।। २७ ।।

युगोंके हासके अनुसार सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुगमें मनुष्योंके धर्म भी भिन्नभिन्न प्रकारके हो जाते हैं || २७ ।।

तप: परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुत्तमम्‌ ।

द्वापरे यज्ञमेवाहुर्दानमेक॑ कलौ युगे ।। २८ ।।

सत्ययुगमें तपस्याको ही सबसे बड़ा धर्म माना गया है। त्रेतामें ज्ञानको ही उत्तम बताया गया है। द्वापरमें यज्ञ और कलियुगमें एकमात्र दान ही श्रेष्ठ कहा गया है || २८ ।।

एतां द्वादशसाहसत्रीं युगाख्यां कवयो विदु: ।

सहस्रपरिवर्त तद्‌ ब्राह्मं दिवसमुच्यते ।। २९ ।।

इस प्रकार देवताओंके बारह हजार वर्षोका एक चतुर्युग होता है; यह विद्वानोंकी मान्यता है। एक सहस्र चतुर्युगको ब्रह्माका एक दिन बताया जाता है ।। २९ ।।

रात्रिमेतावतीं चैव तदादौ विश्वमी श्वर: ।

प्रलये ध्यानमाविश्य सुप्त्वा सोऽन्ते विबुद्धयते ।। ३० ।।

इतने ही युगोंकी उनकी एक रात्रि भी होती है। भगवान्‌ ब्रह्मा अपने दिनके आरम्भमें संसारकी सृष्टि करते हैं और रातमें जब प्रलयका समय होता है, तब सबको अपनेमें लीन करके योगनिद्राका आश्रय ले सो जाते हैं; फिर प्रलयका अन्त होने अर्थात्‌ रात बीतनेपर वे जाग उठते हैं || ३० ।।

सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्म॒णो विदु: ।

रात्रि युगसहस्रान्तां तेडहोरात्रविदो जना: | ३१ ।।

एक हजार चतुर्युगका जो ब्रह्माका एक दिन बताया गया है और उतनी ही बड़ी जो उनकी रात्रि कही गयी है, उसको जो लोग ठीक-ठीक जानते हैं, वे ही दिन और रात अर्थात्‌ कालतत्त्वको जाननेवाले हैं ।।

प्रतिबुद्धों विकुरुते ब्रह्माक्षय्यं क्षपाक्षये सृजते च पर ।
तस्माद्‌ व्यक्तात्मकं मन: ॥ ३२ ॥

रात्रि समाप्त जाग्रत्‌ हुए ब्रह्माजी पहले अपने अक्षय स्वरूप को माया से विकारयुक्त बनाते हैं फिर महत्तत्त्व को उत्पन्न करते हैं। तत्पश्चात्‌ उससे स्थूल जगत्‌ को धारण करनेवाले मनकी उत्पत्ति होती है।[7]

मनुस्मृति

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मनुस्मृति के 1.64–80 में आँख झपकाने में लगे समय ('निमेश') से लेकर ब्रह्मा के एक दिन (कल्प) और एक रात प्रलय) का वर्णन है।[8][9][10]

निमेषा दश चाष्टौ च काष्ठा त्रिंशत् तु ताः कला ।
त्रिंशत् कला मुहूर्तः स्यादहोरात्रं तु तावतः ॥ ६४ ॥
(64) अट्ठारह निमेश, एक काष्ठा होता है, तीस काष्ठा, एक कला होती है, तीस कला, एक मुहूर्त होता है, और तीस मुहूर्त एक अहोरात्र (१ रात + १ दिन) होता है।

अहोरात्रे विभजते सूर्यो मानुषदैविके ।
रात्रिः स्वप्नाय भूतानां चेष्टायै कर्मणामहः ॥ ६५ ॥
(65) सूर्य ही मनुष्यों और देवों के दिन-रात का विभाजन करता है। इसका अभिप्राय यह है कि सूर्य के उदय से अस्त होने तक की अवधि दिन और उसके अस्त होने से उदय होने के मध्य की अवधि को रात्रि नाम दिया जाता है। रात्रि प्राणियों की विश्राम-वेला है और दिन क्रिया-कलापों में प्रवृत्त होने का समय है। दूसरे शब्दा म मनुष्य दिन में काम और रात्रि में विश्राम करते हैं।

पित्र्ये रात्र्यहनी मासः प्रविभागस्तु पक्षयोः ।
कर्मचेष्टास्वहः कृष्णः शुक्लः स्वप्नाय शर्वरी ॥ ६६ ॥
(66) मनुष्यों का एक मास, अर्थात्‌ तीस दिन, जिसका विभाजन १५-१५ दिनों के शुक्ल और कृष्ण नामक दो पक्षों में किया जाता है, प्रतिपदा से पूर्णिमा तक की पन्द्रह तिथियां अथवा दिन (चांदनी रातें) शुक्ल पक्ष के अन्तर्गत तथा प्रथमा से अमावस्या तक की पन्द्रह तिथियां (अंधेरी रातें) कृष्ण पक्ष के अन्तर्गत हैं। शुक्ल पक्ष को 'सुदी' और कृष्ण पक्ष को वदी' संक्षेप भी दिया जाता है। एक पक्ष पितरों का एक रात-दिन होता है। इसमें शुक्ल पक्ष उनकी रात्रि, अर्थात्‌ विश्राम का समय होता है और कृष्ण पक्ष उनका दिन, अर्थात्‌ कार्य-काल होता है।

दैवे रात्र्यहनी वर्षं प्रविभागस्तयोः पुनः ।
अहस्तत्रोदगयनं रात्रिः स्याद् दक्षिणायनम् ॥ ६७ ॥
(67) मनुष्यों के छह-छह मासों के दो अयन होते हैं। सूर्य के दक्षिण से उत्तर की ओर आने की छह मास की अवधि (माघ से आषाढ़ तक) उत्तरायण तथा उत्तर से दक्षिण की ओर जाने की छह मास की अवधि (श्रावण से पौष तक) दक्षिणायन कहलाती है। इन दो अयनों (उत्तरायण और दक्षिणायन) का अथवा बारह मासों का एक वर्ष होता है। मनुजी के अनुसार मनुष्यों का एक वर्ष देवों का एक दिन-रात होता है। उत्तरायण देवों का दिन है और दक्षिणायन उनकी रात्रि है। दक्षिणायन में देवता विश्राम करते हैं और उत्तरायण में वे जागते तथा कार्य करते हैं।

ब्राह्मस्य तु क्षपाहस्य यत् प्रमाणं समासतः ।
एकैकशो युगानां तु क्रमशस्तन्निबोधत ॥ ६८ ॥
(68) विप्रो ! अब मैं आप लोगों को संक्षेप में ब्रह्माजी के दिन-रात का तथा युगों (वर्षों के विभिन्‍न समुच्चयों) के परिमाण का परिचय देता हूँ। आप लोग सावधान होकर श्रवण करें।

चत्वार्याहुः सहस्राणि वर्षाणां तत् कृतं युगम् ।
तस्य तावत्शती सन्ध्या सन्ध्यांशश्च तथाविधः ॥ ६९ ॥
(69) कृतयुग (देवों के) चार हजार वर्षों का होता है। उसके पूर्व ४०० देव-वर्षों की संध्या होती है और उसके पश्चात ४०० देव-वर्षों की संन्ध्यांश होती है।

इतरेषु ससन्ध्येषु ससन्ध्यांशेषु च त्रिषु ।
एकापायेन वर्तन्ते सहस्राणि शतानि च ॥ ७० ॥
(70) शेष तीनों युग (त्रेता, द्वापर और कलि) का परिमाण क्रमशः एक-एक हजार देवी वर्ष तथा उनकी सन्धाएं और सन्ध्यांश क्रमशः एक सौ दैवी वर्ष न्यून हैं। (अर्थात त्रेता युग का परिमाण ३००० देव-वर्ष है, द्वापर का २००० देव-वर्ष और कलि का १००० देव-वर्ष। इसी प्रकार इनकी संध्याएँ क्रमशः ३००, २०० और १०० देव-वर्ष की होती हैं।)

यदेतत् परिसङ्ख्यातमादावेव चतुर्युगम् ।
एतद् द्वादशसाहस्रं देवानां युगमुच्यते ॥ ७१ ॥
(71) मनुष्यों का चार युग का कुल परिमाण १२ हजार देव-वर्ष है। वह देवताओं का एक युग कहलाता है।

दैविकानां युगानां तु सहस्रं परिसङ्ख्यया ।
ब्राह्ममेकमहर्ज्ञेयं तावतीं रात्रिमेव च ॥ ७२ ॥}}
(72) देवों के १००० युग ब्रह्मा के एक दिन के बराबर होता है। और ब्रह्मा की रात्रि भी इसी के बराबर होती है।

तद् वै युगसहस्रान्तं ब्राह्मं पुण्यमहर्विदुः ।
रात्रिं च तावतीमेव तेऽहोरात्रविदो जनाः ॥ ७३ ॥
(73) जो लोग यह जानते हैं कि ब्रह्मा के पुण्य दिन का अन्त १२ हजार देव-वर्षों के बाद हो जाता है तथा उनकी रात्रि भी उतनी ही लम्बी होती है, वे ही अहोरात्र को वास्तव में जानते हैम।

यद् प्राग् द्वादशसाहस्रमुदितं दैविकं युगम् ।
तदेकसप्ततिगुणं मन्वन्तरमिहोच्यते ॥ ७९ ॥
(79) जो पहले १२ हजार देव-वर्षों का एक देव-युग बताया गया है, उसको ७१ से गुणा करने पर जो प्राप्त होता है वह एक मन्वन्तर कहलाता है।

मन्वन्तराण्यसङ्ख्यानि सर्गः संहार एव च ।
क्रीडन्निवैतत् कुरुते परमेष्ठी पुनः पुनः ॥ ८० ॥
(80) मन्वन्तर तथा सर्ग और संहार, असंख्य हैं। ब्रह्मा बार-बार यह खेल खेलते रहे हैं।

Manusmriti, Ch. 1[9]

सूर्यसिद्धान्त

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सूर्यसिद्धान्त के श्लोक 1.10–21 प्राण से लेकर ब्रह्मा के सौ वर्ष (महाकल्प) तक की समय के मात्रकों का वर्णन है। १० दीर्घ मात्राओं को उच्चारित करने में लगने वाला समय =१० 'गुर्वाक्षर' = १ प्राण।

लोकानामन्तकृत्कालः कालोऽन्यः कलनात्मकः ।
स द्विधा स्थूलसूक्ष्मत्वान्मूर्त्तश्चामूर्त्त उच्यते ॥१-१०॥
(10) काल लोकों का अन्त करने वाला है। दूसरा काल कलनात्मक है। यह काल दो प्रकार का होता है जो मूर्त और अमूर्त। मूर्त स्थूल है जबकि अमूर्त सूक्ष्म।
<poem>

<poem>
प्राणादिः कथितो मूर्त्तस्त्रुट्याद्योऽमूर्त्तसंज्ञकः ।
षड्भिः प्राणैर्विनाडी स्यात्तत्षष्ट्‌या नाडिकाः स्मृताः ।।१-११।।
(11) That which begins with respirations (prana) is called real; that which begins with atoms (truti) is called unreal. Six respirations make a vinadi, sixty of these a nadi;

नाडीषष्ट्या तु नाक्षत्रमहोरात्रं प्रकीर्तितम्‌ ।
तत्‌त्रिंशता भवेन्मासः सावनोऽर्कोदयैस्था ।।१-१२।।
(12) And sixty nadis make a sidereal day and night. Of thirty of these sidereal days is composed a month; a civil (savana) month consists of as many sunrises;

ऐन्दवस्तिथिभिः तद्वत्संक्रान्त्या सौर उच्यते।
मासैर्द्वादशभिर्वर्षं दिव्यं तदह उच्यते ॥१-१३॥
(13) A lunar month, of as many lunar days (tithi); a solar (saura) month is determined by the entrance of the sun into a sign of the zodiac : twelve months make a year. This is called a day of the gods.

सुरासुराणामन्योऽन्यमहोरात्रं विपर्ययात्‌ ।
तत्षष्टिः षड्गुणा दिव्यं वर्षमासुरमेव च ॥१-१४॥
(14) The day and night of the gods and of the demons are mutually opposed to one another. Six times sixty [360] of them are a year of the gods, and likewise of the demons.

तद् द्वादशसहस्राणि चतुर्युगमुदाहृतम्‌ ।
सूर्याब्दसङ्ख्यया द्वित्रिसागरैरयुताहतैः ॥१-१५॥
(15) Twelve thousand of these divine years are denominated a Quadruple Age (caturyuga); of ten thousand times four hundred and thirty-two [4,320,000] solar years

सन्ध्यासन्ध्यांशसहितं विज्ञेयं तच्चतुर्युगम्‌ ।
कृतादीनां व्यवस्थेयं धर्मपादव्यवस्थया ॥१-१६॥
(16) Is composed that Quadruple Age, with its dawn and twilight. The difference of the Golden and the other Ages, as measured by the difference in the number of the feet of Virtue in each, is as follows:

युगस्य दशमो भागश्चतुस्त्रिद्व्येकसङ्गुणः ।
क्रमात्‌ कृतयुगादीनां षष्ठांशः सन्ध्ययोः स्वकः ॥१-१७॥
(17) The tenth part of an Age, multiplied successively by four, three, two, and one, gives the length of the Golden and the other Ages, in order : the sixth part of each belongs to its dawn and twilight.

युगानां सप्ततिः सैका मन्वन्तरमिहोच्यते ।
कृताब्दसङ्ख्यस्तस्यान्ते सन्धिः प्रोक्तो जलप्लवः ॥१-१८॥
(18) One and seventy [71] Ages are styled here a Patriarchate (manvantara); at its end is said to be a twilight which has the number of years of a Golden Age, and which is a deluge.

ससन्धयस्ते मनवः कल्पे ज्ञेयाश्चतुर्दश ।
कृतप्रमाणः कल्पादौ सन्धिः पञ्चदशः स्मृतः ॥१-१९॥
(19) In an Æon (kalpa) are reckoned fourteen such Patriarchs (manu) with their respective twilights; at the commencement of the Æon is a fifteenth dawn, having the length of a Golden Age.

इत्थं युगसहस्रेण भूतसंहारकारकः ।
कल्पो ब्राह्ममहःप्रोक्तं शर्वरी तस्य तावती ॥१-२०॥
(20) The Æon, thus composed of a thousand Ages, and which brings about the destruction of all that exists, is styled a day of Brahma; his night is of the same length.

परमायुः शतं तस्य तयाऽहोरात्रसङ्ख्यया ।
आयुषोऽर्धमितं तस्य शेषकल्पोऽयमादितः ॥१-२१॥
(21) His extreme age is a hundred, according to this valuation of a day and a night 


...

वर्तमान तिथि

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हम वर्तमान में वर्तमान ब्रह्मा के इक्यावनवें वर्ष में सातवें मनु, वैवस्वत मनु के शासन में श्वेतवाराह कल्प के द्वितीय परार्ध में, अठ्ठाईसवें कलियुग के प्रथम वर्ष के प्रथम दिवस में विक्रम संवत 2080 में हैं। इस प्रकार अबतक १५ नील, ५५ खरब, २१ अरब, ९७ करोड़, १९ लाख, ६१ हज़ार, ६२5 वर्ष इस ब्रह्मा को सॄजित हुए हो गये हैं।

ग्रेगोरियन कैलेण्डर के अनुसार वर्तमान कलियुग दिनाँक 17 फरवरी / 18 फरवरी को 3102 ई० पू० में हुआ था। इस बात को वेदांग ज्योतिष के व्यख्याकार नहीं मानते। उनका कहना है कि यह समय महाभारत के युद्ध का है । इसके ३६ साल बाद यदुवंश का विनाश हुआ और उसी दिन से वास्तविक कलियुग प्रारम्भ हुुआ। इस गणित से आज वि॰ सं॰ २०७३|४|१५ दिनांक को कलिसंवत् ५०८१|८वें मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि चल रही है |

ब्रह्मा जी के एक दिन में १४ इन्द्र मर जाते हैं और इनकी जगह नए देवता इन्द्र का स्थान लेते हैं। इतनी ही बड़ी ब्रह्मा की रात्रि होती है। दिन की इस गणना के आधार पर ब्रह्मा की आयु १०० वर्ष होती है फिर ब्रह्मा मर जाते है और दूसरा देवता ब्रह्मा का स्थान ग्रहण करते हैं। ब्रह्मा की आयु के बराबर विष्णु का एक दिन होता है। इस आधार पर विष्णु जी की आयु १०० वर्ष है। विष्णु जी १०० वर्ष का शंकर जी का एक दिन होता है। इस दिन और रात के अनुसार शंकर जी की आयु १०० वर्ष होती है।

इन्हें भी देखें

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हिन्दू शास्त्र
  1. Ebenezer Burgess. "Translation of the Surya-Siddhanta, a text-book of Hindu Astronomy", Journal of the American Oriental Society 6 (1860): 141–498.
  2.  [1] Archived 2008-10-06 at the वेबैक मशीन 
  3. "संग्रहीत प्रति". मूल से 10 अक्तूबर 2008 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 28 जून 2008.
  4.  http://vedabase.net/sb/3/11/10/en1 Archived 2010-07-21 at the वेबैक मशीन
  5. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> का गलत प्रयोग; Dutt 1903 नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है।
  6. महाभारत (हिन्दी अर्थ सहित, गीताप्रेस, गोरखपुर)
  7. महाभारत (हिन्दी अर्थ सहित, गीताप्रेस, गोरखपुर)
  8. Jones, Sir William (1807) [1st ed. 1794]. "The Laws of Menu, Son of Brahma - Chapter The First: On the Creation; with a Summary of the Contents". The Works of Sir William Jones in thirteen volumes. VII. पपृ॰ 101–104.
  9. Bühler, G. (1886). "Ch. 1, The Creation". प्रकाशित Müller, F. Max (संपा॰). The Laws of Manu: translated with extracts from seven commentaries. Sacred Books of the East. XXV. Oxford University Press. पपृ॰ 19–20 (1.64–73), 22 (1.79–80).
  10. Jha, Ganganath (1999) [1st ed. 1920]. "Discourse I - Origin of the Work—Creation of the World—Summary of Contents of the Book.". Manusmriti with the Commentary of Medhatithi in Ten Volumes. Adhyāya 1. Motilal Banarsidass Publishers Pvt. Ltd. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 8120811550 – वाया Wisdom Library.
  11. Burgess, Rev. Ebenezer (1935). "Ch. 1: Of the Mean Motions of the Planets.". प्रकाशित Gangooly, Phanindralal (संपा॰). Translation of the Surya-Siddhanta, A Text-Book of Hindu Astronomy; With notes and an appendix. University of Calcutta. पपृ॰ 5–12 (1.10–21). नामालूम प्राचल |orig-date= की उपेक्षा की गयी (मदद)

बाहरी कड़ियाँ

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