भारत छोड़ो भाषण

भारत आंदोलन छोड़ने की पूर्व संध्या पर महात्मा गांधी द्वारा किए गए भाषण

भारत छोड़ो भाषण 8 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन छेड़ते समय महात्मा गांधी द्वारा दिया गया भाषण है। इसी भाषण में उन्होंने भारतीयों से दृढ़ निश्चय के लिए आह्वान करते हुए 'करो या मरो' का नारा दिया। उनका भाषण बॉम्बे (अब मुंबई) के गोवालिया टैंक मैदान पार्क में दिया गया था, जिसका नाम बदलकर अब 'अगस्त क्रांति मैदान' रखा दिया गया है। हालाँकि, सरकार ने कांग्रेस के लगभग सभी शीर्ष नेताओं (राष्ट्रीय स्तर के नेताओँ के अलावा औरों को भी) को गांधी के भाषण देने के चौबीस घंटे से अंदर गिरफ़्तार कर उन्हें जेल में डाल दिया। अन्य बहुतेरे कांग्रेस नेताओं समूचे द्वितीय विश्वयुद्ध जेल में ही रखा गया। गांधी ने यह भाषण भारत को आजादी दिलाने में मदद करने के लिए किया था।

बंगलौर में जुलूस का दृश्य

गांधीजी ने यह भाषण दो भाषाओं में दिया। पहले उन्होंने हिन्दी में भाषण आरम्भ किया और अन्त में उसको संक्षेप में अंग्रेजी में भी कह दिया।

गांधीजी का भारत छोड़ो भाषण[1]

प्रस्ताव पर चर्चा शुरू करने से पहले मैं आप सभी के सामने एक या दो बात रखना चाहूँगा, मैं दो बातो को साफ़-साफ़ समझना चाहता हूँ और उन दो बातों को मैं हम सभी के लिये महत्वपूर्ण भी मानता हूँ। मैं चाहता हूँ की आप सब भी उन दो बातों को मेरे नजरिये से ही देखे, क्योंकि यदि आपने उन दो बातों को अपना लिया तो आप हमेशा आनंदित रहोंगे।

यह एक महान जवाबदारी है। कई लोग मुझसे यह पूछते है की क्या मैं वही इंसान हूँ जो मैं 1920 में हुआ करता था, और क्या मुझमे कोई बदलाव आया है। ऐसा प्रश्न पूछने के लिये आप बिल्कुल सही हो। मैं जल्द ही आपको इस बात का आश्वासन दिलाऊंगा की मैं वही मोहनदास गांधी हूँ जैसा मैं 1920 में था।

मैंने अपने आत्मसम्मान को नही बदला है।आज भी मैं हिंसा से उतनी ही नफरत करता हूँ जितनी उस समय करता था। बल्कि मेरा बल तेज़ी से विकसित भी हो रहा है। मेरे वर्तमान प्रस्ताव और पहले के लेख और स्वभाव में कोई विरोधाभास नही है। वर्तमान जैसे मौके हर किसी की जिंदगी में नहीं आते लेकिन कभी-कभी एक-आध की जिंदगी में जरुर आते है। मैं चाहता हूँ की आप सभी इस बात को जाने की अहिंसा से ज्यादा शुद्ध और कुछ नहीं है, इस बात को मैं आज कह भी रहा हूँ और अहिंसा के मार्ग पर चल भी रहा हूँ।

हमारी कार्यकारी समिति का बनाया हुआ प्रस्ताव भी अहिंसा पर ही आधारित है, और हमारे आन्दोलन के सभी तत्व भी अहिंसा पर ही आधारित होंगे। यदि आप में से किसी को भी अहिंसा पर भरोसा नहीं है तो कृपया करके इस प्रस्ताव के लिये वोट ना करें। मैं आज आपको अपनी बात साफ़-साफ़ बताना चाहता हूँ। भगवान ने मुझे अहिंसा के रूप में एक मूल्यवान हथियार दिया है। मैं और मेरी अहिंसा ही आज हमारा रास्ता है।

वर्तमान समय में जहाँ धरती हिंसा की आग में झुलस चुकी है और वही लोग मुक्ति के लिये रो रहे है, मैं भी भगवान द्वारा दिये गए ज्ञान का उपयोग करने में असफल रहा हूँ, भगवान मुझे कभी माफ़ नही करेगा और मैं उनके द्वारा दिये गए इस उपहार को जल्दी समझ नही पाया। लेकिन अब मुझे अहिंसा के मार्ग पर चलना ही होंगा।

अब मुझे डरने की बजाए आगे देखकर बढ़ना होंगा।हमारी यात्रा ताकत पाने के लिये नहीं बल्कि भारत की आज़ादी के लिये अहिंसात्मक लड़ाई के लिए है। हिंसात्मक यात्रा में तानाशाही की संभावनाएं ज्यादा होती है जबकि अहिंसा में तानाशाही के लिये कोई जगह ही नही है। एक अहिंसात्मक सैनिक खुद के लिये कोई लोभ नही करता, वह केवल देश की आज़ादी के लिये ही लड़ता है। कांग्रेस इस बात को लेकर बेफिक्र है की आज़ादी के बाद कौन शासन करेंगा।

आज़ादी के बाद जो भी ताकत आएँगी उसका संबंध भारत की जनता से होगा और भारत की जनता ही ये निश्चित करेंगी की उन्हें ये देश किसे सौपना है। हो सकता है की भारत की जनता अपने देश को पेरिस के हाथो सौपे। कांग्रेस सभी समुदायों को एक करना चाहता है ना की उनमें फुट डालकर विभाजन करना चाहता है।

आज़ादी के बाद भारत की जनता अपनी इच्छानुसार किसी को भी अपने देश की कमान सँभालने के लिये चुन सकती है और चुनने के बाद भारत की जनता को भी उसके अनुरूप ही चलना होंगा। मैं जानता हूँ की अहिंसा परिपूर्ण नहीं है और ये भी जानता हूँ की हम अपने अहिंसा के विचारो से फ़िलहाल कोसों दूर है लेकिन अहिंसा में ही अंतिम असफलता नहीं है। मुझे पूरा विश्वास है, छोटे-छोटे काम करने से ही बड़े-बड़े कामो को अंजाम दिया जा सकता है।

ये सब इसलिए होता है क्योंकि हमारे संघर्षो को देखकर अंततः भगवान भी हमारी सहायता करने को तैयार हो जाते है। मेरा इस बात पर भरोसा है की दुनिया के इतिहास में हमसे बढ़कर और किसी देश ने लोकतांत्रिक आज़ादी पाने के लिये संघर्ष किया होगा। जब मै पेरिस में था तब मैंने कार्लाइल फ्रेंच प्रस्ताव पढ़ा था और पंडित जवाहरलाल नेहरु ने भी मुझे रशियन प्रस्ताव के बारें में थोडा बहुत बताया था। लेकिन मेरा इस बात पर पूरा विश्वास है की जब हिंसा का उपयोग कर आज़ादी के लिये संघर्ष किया जायेगा तब लोग लोकतंत्र के महत्त्व को समझने में असफल होंगे।

जिस लोकतंत्र का मैंने विचार कर रखा है, उस लोकतंत्र का निर्माण अहिंसा से होगा, जहाँ हर किसी के पास समान आज़ादी और अधिकार होंगे। जहाँ हर कोई खुद का शिक्षक होंगा और इसी लोकतंत्र के निर्माण के लिये आज मै आपको आमंत्रित करने आया हूँ। एक बार यदि आपने इस बात को समझ लिया तब आप हिन्दू और मुस्लिम के भेदभाव को भूल जाओंगे। तब आप एक भारतीय बनकर खुद का विचार रखोगे और आज़ादी के संघर्ष में साथ दोगे। अब प्रश्न ब्रिटिशों के प्रति आपके रवैये का है। मैंने देखा है की कुछ लोगों में ब्रिटिशो के प्रति नफरत का रवैया है।

कुछ लोगो का कहना है की वे ब्रिटिशों के व्यवहार से चिढ चुके है। कुछ लोग ब्रिटिश साम्राज्यवाद और ब्रिटिश लोगों के बीच के अंतर को भूल चुके है। उन लोगों के लिये दोनों ही एक समान है। उनकी यह घृणा जापानियों को आमंत्रित कर रही है। यह काफी खतरनाक होगा। इसका मतलब वे एक गुलामी की दूसरी गुलामी से अदला बदली करेंगे।

हमें इस भावना को अपने दिलों दिमाग से निकाल देना चाहिये। हमारा झगडा ब्रिटिश लोगों के साथ नही हैं बल्कि हमें उनके साम्राज्यवाद से लड़ना है। ब्रिटिश शासन को खत्म करने का मेरा प्रस्ताव गुस्से से पूरा नही होने वाला।

यह किसी बड़े देश जैसे भारत के लिये कोई ख़ुशी वाली बात नही है की ब्रिटिश लोग जबरदस्ती हमसे धन वसूल रहे है।हम हमारे महापुरुषों के बलिदानों को नही भूल सकते। मैं जानता हूँ की ब्रिटिश सरकार हमसे हमारी आज़ादी नही छीन सकती, लेकिन इसके लिये हमें एकजुट होना होगा। इसके लिये हमें खुद को घृणा से दूर रखना चाहिए।

.खुद के लिये बोलते हुए, मैं कहना चाहूँगा की मैंने कभी घृणा का अनुभव नही किया। बल्कि मैं समझता हूँ की मैं ब्रिटिशों के सबसे गहरे मित्रो में से एक हूँ। आज उनके अविचलित होने का एक ही कारण है, मेरी गहरी दोस्ती। मेरे दृष्टिकोण से वे फ़िलहाल नरक की कगार पर बैठे हुए है। और यह मेरा कर्तव्य होगा कि मैं उन्हें आने वाले खतरे की चुनौती दूँ। इस समय जहाँ मैं अपने जीवन के सबसे बड़े संघर्ष की शुरुवात कर रहा हूँ, मैं नहीं चाहता की किसी के भी मन में किसी के प्रति घृणा का निर्माण हो।


Quit India Speech by Mahatma Gandhi

Before you discuss the resolution, let me place before you one or two things, I want you to understand two things very clearly and to consider them from the same point of view from which I am placing them before you. I ask you to consider it from my point of view, because if you approve of it, you will be enjoined to carry out all I say. It will be a great responsibility. There are people who ask me whether I am the same man that I was in 1920, or whether there has been any change in me or you. You are right in asking that question.

Let me, however, hasten to assure that I am the same Gandhi as I was in 1920. I have not changed in any fundamental respect. I attach the same importance to non-violence that I did then. If at all, my emphasis on it has grown stronger. There is no real contradiction between the present resolution and my previous writings and utterances.

Occasions like the present do not occur in everybody’s and but rarely in anybody’s life. I want you to know and feel that there is nothing but purest Ahimsa in all that I am saying and doing today. The draft resolution of the Working Committee is based on Ahimsa, the contemplated struggle similarly has its roots in Ahimsa. If, therefore, there is any among you who has lost faith in Ahimsa or is wearied of it, let him not vote for this resolution. Let me explain my position clearly. God has vouchsafed to me a priceless gift in the weapon of Ahimsa. I and my Ahimsa are on our trail today. If in the present crisis, when the earth is being scorched by the flames of Himsa and crying for deliverance, I failed to make use of the God given talent, God will not forgive me and I shall be judged unworthy of the great gift. I must act now. I may not hesitate and merely look on, when Russia and China are threatened.

Ours is not a drive for power, but purely a non-violent fight for India’s independence. In a violent struggle, a successful general has been often known to effect a military coup and to set up a dictatorship. But under the Congress scheme of things, essentially non-violent as it is, there can be no room for dictatorship. A non-violent soldier of freedom will covet nothing for himself, he fights only for the freedom of his country. The Congress is unconcerned as to who will rule, when freedom is attained. The power, when it comes, will belong to the people of India, and it will be for them to decide to whom it placed in the entrusted. May be that the reins will be placed in the hands of the Parsis, for instance-as I would love to see happen-or they may be handed to some others whose names are not heard in the Congress today. It will not be for you then to object saying, “This community is microscopic. That party did not play its due part in the freedom’s struggle; why should it have all the power?” Ever since its inception the Congress has kept itself meticulously free of the communal taint. It has thought always in terms of the whole nation and has acted accordingly. . . I know how imperfect our Ahimsa is and how far away we are still from the ideal, but in Ahimsa there is no final failure or defeat. I have faith, therefore, that if, in spite of our shortcomings, the big thing does happen, it will be because God wanted to help us by crowning with success our silent, unremitting Sadhana for the last twenty-two years.

I believe that in the history of the world, there has not been a more genuinely democratic struggle for freedom than ours. I read Carlyle’s French Revolution while I was in prison, and Pandit Jawaharlal has told me something about the Russian revolution. But it is my conviction that inasmuch as these struggles were fought with the weapon of violence they failed to realize the democratic ideal. In the democracy which I have envisaged, a democracy established by non-violence, there will be equal freedom for all. Everybody will be his own master. It is to join a struggle for such democracy that I invite you today. Once you realize this you will forget the differences between the Hindus and Muslims, and think of yourselves as Indians only, engaged in the common struggle for independence.

Then, there is the question of your attitude towards the British. I have noticed that there is hatred towards the British among the people. The people say they are disgusted with their behaviour. The people make no distinction between British imperialism and the British people. To them, the two are one. This hatred would even make them welcome the Japanese. It is most dangerous. It means that they will exchange one slavery for another. We must get rid of this feeling. Our quarrel is not with the British people, we fight their imperialism. The proposal for the withdrawal of British power did not come out of anger. It came to enable India to play its due part at the present critical juncture It is not a happy position for a big country like India to be merely helping with money and material obtained willy-nilly from her while the United Nations are conducting the war. We cannot evoke the true spirit of sacrifice and valour, so long as we are not free. I know the British Government will not be able to withhold freedom from us, when we have made enough self-sacrifice. We must, therefore, purge ourselves of hatred. Speaking for myself, I can say that I have never felt any hatred. As a matter of fact, I feel myself to be a greater friend of the British now than ever before. One reason is that they are today in distress. My very friendship, therefore, demands that I should try to save them from their mistakes. As I view the situation, they are on the brink of an abyss. It, therefore, becomes my duty to warn them of their danger even though it may, for the time being, anger them to the point of cutting off the friendly hand that is stretched out to help them. People may laugh, nevertheless that is my claim. At a time when I may have to launch the biggest struggle of my life, I may not harbor hatred against anybody.

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  1. "महात्मा गाँधी का भारत छोड़ो आंदोलन पर भाषण – Mahatma Gandhi Speech In Hindi". मूल से 11 मार्च 2019 को पुरालेखित.