संस्कृत व्याकरण के सन्दर्भ में प्रत्याहार का अलग अर्थ है। यहाँ पातंजल योग से सम्बन्धित प्रत्याहार की चर्चा की गयी है।

प्रत्याहार, पातंजल द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग का पाँचवाँ चरण है। चूंकि छठा चरण ध्यान है, इसलिए प्रत्याहार ध्यान के आधार के रूप में काम करता है। प्रत्याहार का यौगिक है 'प्रति' + 'आहार', 'प्रति' का अर्थ है उल्टा और 'आहार' का अर्थ है भोजन, जो भी हम ग्रहण करते हैं। भगवान आदि शंकराचार्य ने आहार को और विस्तार से समझाया है, उनके अनुसार हम अपनी इंद्रियों के माध्यम से जो भी ग्रहण करते हैं, वही हमारा आहार है। जैसे जिह्वा इन्द्रिय से भोजन, कान इन्द्रिय से श्रवण, नेत्र इन्द्रिय से दृष्टि बोध, नासिका इन्द्रिय से गंध बोध, त्वचा से स्पर्श बोध।

ध्यान से पहले प्रत्याहार क्यों?

इसके पीछे कारण चेतना शक्ति को दिशा देना है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार वह चेतना निष्पक्ष और सम है, इसकी तुलना दीपक से की गई है। यदि घर में चोर घुस जाए तो दीपक चोर को भी रोशनी देता है और सोए हुए व्यक्ति को भी, यानी निष्पक्ष और सम रहता है। इसी प्रकार चेतना भी संसार में और अध्यात्म में, जहां भी लागू होती है, प्रवाहित होती है। इस चेतना को धीरे-धीरे बाह्य आहार, दृश्य आदि से हटाकर हम मन के विषय के चिंतन में लगाते हैं, जिससे ध्यान का प्रबल प्रवाह हो सके। प्रत्याहार का अभ्यास न करने से ध्यान में एकाग्रता नहीं आती, क्योंकि चेतना शक्ति इन्द्रियों के आहार में लगी रहती है, जिससे मन के विषय को प्राप्त होने वाली चेतना कम हो जाती है, उसमें एकाग्रता नहीं आती और ध्यान का प्रवाह नहीं हो पाता।

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